New Delhi: हाल ही में दो अलग-अलग घटनाओं ने राजनीतिक और सामाजिक हलकों में खासा ध्यान खींचा है। एक ओर अफगानिस्तान के तालिबान शासन ने महिला पत्रकारों को प्रेस कॉन्फ्रेंस में आमंत्रित न करने पर सफाई दी, वहीं दूसरी ओर बिहार की राजनीति में सीट बंटवारे को लेकर पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने अपने तेवर दिखाए। दोनों घटनाएं अपने-अपने संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं और इनसे जुड़ी प्रतिक्रियाएं भी व्यापक रही हैं।
तालिबान की सफाई: महिला पत्रकारों को न बुलाने पर विवाद
अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी की नई दिल्ली में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में महिला पत्रकारों को आमंत्रित नहीं किया गया था। इस पर जब मीडिया और सामाजिक संगठनों ने सवाल उठाए, तो तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने सफाई दी कि यह निर्णय जानबूझकर नहीं लिया गया था। उन्होंने कहा कि पास की संख्या सीमित थी और कुछ पत्रकारों को आमंत्रण नहीं मिल पाया। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि भविष्य में इस तरह की घटनाओं से बचा जाएगा और महिला पत्रकारों को बराबरी का अवसर दिया जाएगा।
यह सफाई भले ही औपचारिक हो, लेकिन इससे यह सवाल उठता है कि क्या तालिबान वास्तव में महिला अधिकारों को लेकर गंभीर है? अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से महिलाओं की शिक्षा, रोजगार और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी पर कई प्रतिबंध लगाए गए हैं। ऐसे में महिला पत्रकारों को प्रेस कॉन्फ्रेंस से बाहर रखना एक प्रतीकात्मक घटना बन जाती है, जो तालिबान की नीति और सोच को दर्शाती है।
बिहार में सीट बंटवारे पर मांझी के तेवर
बिहार की राजनीति में सीट बंटवारे को लेकर एनडीए गठबंधन में हलचल तेज हो गई है। हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) के प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि अगर उनकी पार्टी को सम्मानजनक सीटें नहीं मिलीं, तो वे स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने का विकल्प चुन सकते हैं। मांझी ने कहा कि उनकी पार्टी की ताकत को नजरअंदाज करना गलत होगा और वे किसी भी स्थिति के लिए तैयार हैं।
मांझी का यह रुख एनडीए के भीतर चल रही खींचतान को उजागर करता है। बिहार में जातीय समीकरण और क्षेत्रीय दलों की भूमिका हमेशा से निर्णायक रही है। मांझी की पार्टी दलित वोट बैंक पर प्रभाव रखती है और ऐसे में उनकी नाराजगी एनडीए के लिए नुकसानदायक हो सकती है। यह बयान न केवल राजनीतिक दबाव बनाने की रणनीति है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि छोटे दल अब अपनी हिस्सेदारी को लेकर मुखर हो रहे हैं।
इन दोनों घटनाओं में एक समानता है—प्रतिनिधित्व और सम्मान का सवाल। तालिबान की प्रेस नीति में महिला पत्रकारों को नजरअंदाज करना एक वैश्विक चिंता का विषय है, जबकि बिहार में मांझी की नाराजगी क्षेत्रीय राजनीति में छोटे दलों की भूमिका को रेखांकित करती है। दोनों ही मामलों में यह स्पष्ट है कि जब किसी वर्ग या समूह को नजरअंदाज किया जाता है, तो प्रतिक्रिया तीव्र होती है।
जहां तालिबान को अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी छवि सुधारने की जरूरत है, वहीं भारतीय राजनीति में गठबंधन की मजबूती के लिए सभी घटक दलों को सम्मान देना आवश्यक है। इन घटनाओं से यह संदेश मिलता है कि समावेशिता और संवाद ही किसी भी व्यवस्था की स्थिरता की कुंजी हैं।
अगर आप चाहें तो मैं मांझी की पार्टी के संभावित रणनीतिक विकल्पों या तालिबान की महिला नीति पर गहराई से विश्लेषण भी कर सकता हूँ।
